अध्याय एक
धृतराष्ट्र का पुत्र मोह और दुर्योधन का अहंकार महाभारत-युद्ध का प्रमुख कारण था। भगवान्
कृष्ण इस युद्ध से होने वाली अपार जन-धन की हानि को जानते थे। उन्होंने इसे टालने का
बहुत प्रयत्न किया। दुर्योधन ने जब पांडवों को कुछ भी देने से मना कर दिया, तो युद्ध
अवश्यंभावी हो गया। भगवान् कृष्ण ने इस युद्ध का नेतृत्व किया। महर्षि वेदव्यास चाहते थे
कि धृतराष्ट्र भी युद्ध का आँखों देखा हाल जान सकें। संजय को उन्होंने अपने योगबल से दिव्य-
दृष्टि प्रदान की। संजय सारथी होते हुए भी उच्च व्यक्तित्व के धनी थे। राजमहल में उनको
महात्माओं जैसा सम्मान प्राप्त था। संजय को दिव्य-दृष्टि देना कोई चमत्कार या जादू नहीं था।
शरीर के किसी भी अंग को योग द्वारा साध लेने पर वह अपनी पूरी शक्ति प्रकट कर देता है।
हमारे शरीर के सभी अंग असाधारण क्षमता से भरे पड़े हैं। मन की चंचलता के कारण हम
अपनी शक्ति से अनभिज्ञ बने रहते हैं। संकल्प बल से योगी दूसरे व्यक्ति के अंग विशेष में भी
शक्ति का संचार कर सकते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस ने विशेष कारणों से ऐसा अनेक बार
किया था। महर्षि वेदव्यास परम ज्ञानी और दूरद्रष्टा थे। संजय के माध्यम से उन्होंने गीता को
परा वाणी से बैखरी वाणी में परिवर्तित कर जगत् की महती सेवा की।
धृतराष्ट्र की मति मोह, ममता ने घेरी,
कुरुक्षेत्र में बज उठे शंख, नगाड़े, रणभेरी। - 1
धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा–"मेरे पुत्रों ने और पांडु के पुत्रों ने युद्धभूमि में क्या किया?” धृतराष्ट्र
को अपने दिवंगत भाई के पुत्रों का हालचाल पहले जानना चाहिए था, परंतु उन्हें तो अपने ही
पुत्रों की चिंता थी। भारतीय संस्कृति में त्याग को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। भगवान्
महावीर जब घर छोड़कर तप के लिए जाने लगे, तो उनके भाई नन्दिवर्धन ने उनके हिस्से की
संपत्ति भी उनको दे दी, जिसे महावीर ने दीन-दुखियों में बाँट दिया। नन्दिवर्धन की जरा भी
इच्छा नहीं थी कि वह छोटे भाई का भाग दबा लें।
गीता का यह प्रथम श्लोक आज के जनमानस पर भी लागू होता है। कर चोरी, भ्रष्टाचार,
रिश्वतखोरी, कालाधन जैसी बुराइयों का कारण दुर्योधन जैसी लोभवृत्ति ही है। एक राष्ट्र का
दूसरे राष्ट्र को परमाणु-शक्ति के इस्तेमाल की धमकी देना अहंकार का प्रदर्शन है। बड़े-बड़े
ज्ञानी और विद्वान् भी धृतराष्ट्र की तरह पुत्र मोह और दुर्योधन की तरह लोभ के चंगुल में फँसे
देखे जा सकते हैं। धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए संजय बोले–
पांडव सेना संगठित सारी,
दुर्योधन को चिंता भारी। - 2
मधुर वचनों से द्रोण लुभाया,
अपनेपन का भाव जताया। - 3
इसके पश्चात् पांडवों की ‘वज्र-व्यूह’ में खड़ी हुई सेना को देखकर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य के
पास जाते हैं। पांडवों की ‘वज्र-व्यूह’ में खड़ी हुई संगठित और एकमत सेना को देखकर दुर्योधन को भय
लगा। अपने भय और कमजोरी को छिपाने के लिए वह गुरु द्रोणाचार्य के पास गया। अनीति
की राह पर चलने वाले व्यक्ति दुर्योधन की तरह दुर्बल मन वाले होते हैं। सिंह के समान निडर
तो सत्यनिष्ठ होते हैं।
दुर्योधन ने जान बूझकर गुरु द्रोणाचार्य को धृष्टद्युम्न का स्मरण कराया। महाभारत
(आदिपर्व/चैत्रपर्व) में द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न के पिता राजा द्रुपद के बैर की कथा है। राजा
द्रुपद ने गुरु द्रोणाचार्य से अपने अपमान का बदला लेने के लिए मुनि याज से यज्ञ कराया,
उसी यज्ञ के अग्नि-कुंड से द्रोणाचार्य के वध के लिए धृष्टद्युम्न का जन्म हुआ था। दुर्योधन पुरानी
दुश्मनी याद दिलाकर द्रोणाचार्य को पूरी तरह अपने पक्ष में करना चाहता था, क्योंकि
द्रोणाचार्य को पांडवों से, विशेषकर अर्जुन से बहुत स्नेह था। दुर्जन अपने पक्ष को मजबूत करने
के लिए सभी दाँवपेंच खेलते हैं। हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे अनेक लोगों को देख
सकते हैं। ये सज्जनों की बुद्धि को भी हर लेते हैं। धन, पद को पाने के लिए ये कुछ भी कर
गुजरने के लिए तैयार रहते हैं। भयभीत दुर्योधन अब द्रोणाचार्य के साथ पांडव सेना का
निरीक्षण करता है।
पांडव योद्धा बड़े बलशाली,
भीम समान सब शक्तिशाली।
महावीर हैं द्रुपद, विराट,युयुधान,
तेज–पुंज हैं धृष्टकेतु, चेकितान।
पुरुजित्, कुन्तिभोज युद्ध में प्रवीण,
शैब्य, कांशी राजन भी हैं नरवीर।
चक्रव्यूह भेदन जानता वीर अभिमन्यु,
वीरों में अग्रिम उत्तमौजा, युधामन्यु। - 4-6
महाभारत के आदिपर्व और सभापर्व में इन योद्धाओं का विस्तृत वर्णन है।
युयुधान (सात्यकि) – यदुवंश के वृष्णि-वंश का योद्धा।
विराट – विराट नगर का राजा।
द्रुपद – पांचालराज–द्रौपदी के पिता।
धृष्टकेतु – शिशुपाल का पुत्र–चेदियों का राजा।
चेकितान – यादव योद्धा।
काशिराज – काशी का राजा।
पुरुजित्, कुन्तिभोज – कुंती के भाई।
शैब्य – शिबियों का राजा।
अभिमन्यु – अर्जुन का पुत्र।
द्रौपदी-पुत्र – प्रतिविन्ध्य युधिष्ठिर का पुत्र, सुतसोम भीम का पुत्र, श्रुतकर्मा अर्जुन का पुत्र,
शतानीक नकुल का पुत्र, श्रुतसेन सहदेव का पुत्र।
युधामन्यु-उत्तमौजा – पांचाल देश के राजकुमार।
भीष्म पितामह – शांतनु के आठवें पुत्र गंगाजी के गर्भ से उत्पन्न हुए।
कर्ण – कुंती पुत्र–सूर्य के अंश से जन्मा।
कृपाचार्य – कौरव-पांडवों ने इनसे धनुर्वेद सीखा था।
अश्वत्थामा – द्रोणाचार्य का महाबली पुत्र।
विकर्ण – धृतराष्ट्र का पुत्र।
भूरिश्रवा – बाह्लीकों का राजा।
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य को पांडवों की सेना के सभी प्रमुख योद्धा दिखाए। इस बहाने वह
द्रोणाचार्य के मन में पांडवों के विरुद्ध जोश भरना चाहता था। दुर्योधन राजकुमार था। बचपन
से ही उसने नीति, सदाचार और धर्म की बात खूब सुनी थीं, परंतु वह कभी भी इन्हें अपने
आचरण में नहीं उतार पाया। बुद्धिमान्, शिक्षितों, ज्ञानियों, धार्मिकों की आज भी कोई कमी
नहीं है। परंतु सदाचारी, संस्कारी ढूँढ़े भी नहीं मिलते हैं। कोरा शास्त्रीय ज्ञान आधा-अधूरा
प्रयास है। नीति-सदाचार को व्यवहार में उतारने से ही मनुष्य सभ्य, संस्कारी और सुखी बन
सकता है। पांडवों की सेना देखने के पश्चात् दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को अपनी सेना की शक्ति से
परिचित कराया।
कौरव सेना गुरु द्रोण को दिखाई,
अपने योद्धाओं की शक्ति गिनवाई। - 7
महारथी कर्ण, पितामह, अश्वत्थामा,
विकर्ण, कृप,भूरिश्रवा बड़े धर्मात्मा। - 8
वीर हमारे युद्ध – कला में चतुर,
उनकी संख्या, शक्ति है प्रचुर। - 9
पांडवों की सेना के निरीक्षण के बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के प्रमुख योद्धाओं की विशेषताएँ
बताईं। दुर्योधन को भौतिक शक्तियों पर विश्वास था, परंतु पांडवों ने आध्यात्मिक बल को
अधिक महत्त्व दिया, इसलिए उन्होंने बाहुबल और सेना की अपेक्षा भगवान् कृष्ण का वरण
किया था।
महाभारत के आदिपर्व में महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की कथा है। राजा विश्वामित्र ने अपनी
सेना के बल से वशिष्ठ की नंदिनी गाय को छीनना चाहा, परंतु महर्षि वशिष्ठ ने अपने योगबल
से उनकी पूरी सेना को परास्त कर दिया। महर्षि वशिष्ठ के इस तपोबल को देखकर विश्वामित्र
ने कहा–“धिग् बलम् क्षत्रियबलं ब्रहमतेजोबलं बलम्।” क्षत्रिय का बल तो नाम मात्र का बल है,
वास्तविक बल तो दिव्य बल है। दोनों सेनाओं को देखने के बाद दुर्योधन विचलित हो उठा।
अगले श्लोक में संजय उसके मनोभाव को प्रकट करते हैं।
एकजुट पांडव सेना सारी,
भीम बल की शक्ति न्यारी। - 10
कौरवों की सेना में भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि उभय पक्षीय योद्धा थे।
दुर्योधन के मन में डर था कि कहीं ये पक्षपाती न हो जाएँ। भीम की गदा-शक्ति से वह बचपन
से ही डरता था और उसे मारने के लिए अनेक प्रयत्न कर चुका था। पांडवों की सेना में सभी
अपने पक्ष के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार थे। अतः यह सब देखकर दुर्योधन का साहस
टूटने लगा। भीष्म पितामह की रक्षा करने के लिए उसने सभी महारथियों को कहा–
पितामह का सब रखो ध्यान,
सामने न आए कोई व्यवधान। - 11
दुर्योधन को भीष्म पितामह की रक्षा की सबसे अधिक चिंता थी। महाभारत की कथानुसार
शिखण्डी पहले स्त्री था, बाद में वह पुरुष हो गया। भीष्म पितामह ने प्रतिज्ञा ली थी कि वे
शिखण्डी से युद्ध नहीं करेंगे। भीष्म पितामह का व्यक्तित्व हिमालय के समान ऊँचा था।
उन्होंने पूरे विश्व को संदेश दिया कि पुरुष अपने बाहुबल से स्त्री को किसी भी प्रकार का कष्ट न
पहुँचाए। दुर्योधन को उदास देखकर भीष्म पितामह के मन में स्नेह जग उठा। अगले श्लोक में
संजय इसी विषय को बताते हैं।
दुर्योधन के मन में चिंता,
पितामह की जागी ममता।
सिंह समान शंख बजाया,
गरज-गरजकर जोश बढ़ाया। - 12
अपने पौत्र दुर्योधन को उदास देखकर भीष्म पितामह ने उसका जोश बढ़ाने के लिए जोर से
शंख बजाया। एक सेनापति होने के नाते भीष्म पितामह ने अपना कर्त्तव्य निभाया। अब युद्ध
प्रारंभ होने जा रहा है। आगे के श्लोकों में धृतराष्ट्र को इसका आँखों देखा हाल सुनाते हुए संजय
बोले–
शंख, नगाड़े बज उठे,
गोमुख बाजे खूब बजे।
सब टुकड़ी ने जोर दिखाया,
भयंकर नाद आसमाँ छाया। - 13
कौरव सेना ने शंख, नगाड़े, ढोल आदि बजाकर युद्ध प्रारंभ करने की सूचना दी। सभी सैन्य
दलों के शंख एक साथ बजने से धरती-आकाश गूँज उठे।
अर्जुन, माधव का रथ भव्य,
शंख बजा रहे वे दिव्य। - 14
तब भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन सफेद घोड़ों से युक्त दिव्य-रथ पर आए और उन्होंने दिव्य
शंख बजाए। भगवान् श्रीकृष्ण के सभी कर्म दिव्य थे। दिव्यता को अक्सर चमत्कार मान लिया
जाता है। सृष्टि में विज्ञान से परे कुछ भी नहीं है। जहाँ चमत्कार दिखाई देता है, वह भी
विज्ञान ही है। मनुष्य के शरीर में अपरिमित शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, जिन्हें साधना के द्वारा
जाग्रत् किया जा सकता है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की आयु में हजारों जन्मों से
भी अधिक कार्य किया था। भगवान् श्रीकृष्ण का पूरा जीवन संसार के कल्याण के लिए
संघर्षमय रहा। दिव्यता ‘प्रज्ञा-बुद्धि’ का फल है।
गूँज उठा पंचजन्य शंखनाद,
खूब बजे देवदत्त, पौण्ड्र नाद। - 15
मणि पुष्पक, सुघोष बजा,
अनंतविजय शंख गूँज उठा। - 16
शिखण्डी की गूँज धरा पर छाई,
विराट,सात्यकि ने भी धूम मचाई। - 17
द्रौपदी पुत्रों ने की महाघोषणा,
वीर अभिमन्यु ने की घोर गर्जना।-18
काशी नरेश, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों
पुत्रों, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु आदि ने अपने-अपने शंख बजाए। भगवान् श्रीकृष्ण ने पांचजन्य
शंख, अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख, भीम ने बहुत बड़ा पौण्ड्र नामक शंख, युधिष्ठिर ने अनंत
विजय, नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक शंख बजाए। शंख को भारतीय संस्कृति में
अत्यंत पवित्र माना गया है। पूजागृहों, देवालयों, मंदिरों में शंख की स्थापना की जाती है। शुभ
और मांगलिक अवसरों पर शंखनाद किया जाता है। महाभारत धर्म-युद्ध था, सभी महारथियों
ने अपने-अपने शंख बजाकर इसका शुभारंभ किया था।
भयंकर शंखनाद से धरा गगन कंपाया,
तुमुल घोष सुन अन्यायी हृदय घबराया। - 19
पांडव सेना के सभी योद्धाओं की शंख ध्वनि से धरती-आकाश गूँज उठे। इससे कौरव सेना
भयभीत हो गई। सज्जनों की संगठित शक्ति सदा दुर्जनों को हराती आई है। भगवान् राम के
रीछ, वानर, बुद्ध के भिक्षु, गाँधी के सत्याग्रहियों की संगठित शक्ति ने अन्याय का विरोध कर
धर्म और नीति की स्थापना की थी। पांडव सेना की संगठित शक्ति से दुर्योधन और उसकी सेना
भी विचलित होने लगी।
रामचरितमानस के लंकाकांड में भी इसी प्रकार का वर्णन है।“बाजहि भेरी नफीरि अपारा।
सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।” (अगणित भेरी और नफीरी बज रही हैं, जिन्हें सुनकर कायरों
के हृदय में दरार पड़ जाती है।) आज चारों तरफ अपराध इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि सज्जन संगठित नहीं हैं। बस, रेल, सड़क, बीच बाजार में हो रहे अपराधों को देखकर वे मूक दर्शक
बने रहते हैं। यदि समाज की युवा-शक्ति और सज्जन मिलकर दुष्टों, अपराधियों के खिलाफ
आवाज बुलंद कर दें, तो कुछ ही दिनों में अपराध नाममात्र रह जाएँगे। अर्जुन के मन में
अन्याय के प्रति द्वंद्व-युद्ध शुरू हो गया है। अर्जुन के इसी असमंजस को दूर करने के लिए
भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से भगवद्गीता प्रकट हुई।
अन्याय से अर्जुन लड़ने को तैयार,
उसने उठा लिया गाण्डीव हथियार। - 20
दोनों सेनाओं ने अपने-अपने हथियार उठा लिए हैं। अर्जुन के मन में इस समय विचारों का
महाभारत चल रहा है। इस कोहराम में उसे कुछ नहीं सूझ रहा है। एक तरफ अन्यायी राजा
खड़े हैं, जिनसे अर्जुन लड़ने को तैयार है। परंतु दूसरी ओर अपने दादा भीष्म पितामह और गुरु
द्रोणाचार्य के साथ बिताए प्यार भरे लम्हें उसे रह-रहकर याद आ रहे हैं। जिस दादा की गोद
में खेला, जिन गुरुओं ने श्रेष्ठ धनुर्धर बनाया, उन पर तीर कैसे चलाए जाएँ? अर्जुन के मन में
यह दुविधा शुरू हो गई है।
रथ को प्रभु ले चलिए वहाँ,
रण मध्य शत्रु खड़े हैं जहाँ।-21 - 22
अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से दोनों सेनाओं के मध्य में रथ खड़ा करने के लिए कहा, जिससे वह
उन सभी योद्धाओं को देख सके जिनके साथ युद्ध करना है।
दुर्योधन की दुर्बुद्धि को पहचाना,
दुष्टों का पतन सुनिश्चित जाना। - 23
दुर्योधन और उसका साथ देने वाले मित्र राजाओं के प्रति अर्जुन के मन में क्षोभ है। नदी के
प्रवाह की भाँति अर्जुन के मन में विचारों का आवेग चल रहा है। वह सोच रहा है कि दुर्योधन
की दुष्टता के कारण यह युद्ध होने जा रहा है। धरती रक्त-रंजित हो जाएगी और अपार जन-
धन की हानि होगी। यदि दुर्योधन ने भीष्म पितामह, विदुर और भगवान् श्रीकृष्ण की सलाह
मान ली होती, तो इस महायुद्ध को टाला जा सकता था।
अर्जुन को युद्ध में हार का डर नहीं है। युद्ध के बाद होने वाला विनाश उसके हृदय को कचोट
रहा है। दुर्योधन को केवल राज्य और धन दिखाई दे रहा है। अर्जुन को सबके हित की चिंता है।
आज अनेक लोग दुर्योधन-बुद्धि का शिकार हो गए हैं। धन को गोपनीय खातों में छुपा देना
और कानून को ताक पर रखकर राष्ट्र को आर्थिक हानि पहुँचाना साक्षात् दुर्योधन-वृत्ति है।
इसके पश्चात् योगेश्वर ने अर्जुन की इच्छानुसार रथ को सेना के बीच में खड़ा कर दिया।
पार्थ ने सब योद्धा देखे,
उचित-अनुचित भाव जगे। - 24
भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य में रथ खड़ा कर दिया। अर्जुन के मन में अभी द्वंद्व-
युद्ध चल रहा है। कभी वह सोच रहा है कि उसे अन्यायी राजाओं से युद्ध करना चाहिए, दूसरे
ही क्षण वह यह भी सोच रहा है कि परिजनों से युद्ध नहीं किया जा सकता। अर्जुन का रथ
चलाकर भगवान् हमें संदेश दे रहे हैं कि मनुष्य को कभी भी अपने पद और शक्ति का अहंकार
नहीं करना चाहिए।
भीष्म पितामह, द्रोण दिए दिखाई,
सब कुरुवंशियों पर नजर दौड़ाई। - 25
योगेश्वर ने रथ को अर्जुन के परिवार, रिश्तेदारों, मित्रों और आचार्यों के निकट लाकर खड़ा
कर दिया और अर्जुन से कहा–‘इन कुरुवंशियों को देख लो, भली प्रकार देख लो।’ कुरु-सेना
बहुत विशाल थी। भगवान् रथ को कहीं और भी ले जा सकते थे, परंतु वे अर्जुन के मनोभावों
को जान चुके थे। अर्जुन के चेहरे पर झलक रही निराशा का कारण उसके परिवार और स्नेहियों
का युद्ध-भूमि में होना था। भगवान् चाहते थे कि अर्जुन का मोह पूरी तरह जाग्रत् हो जाए,
फिर उसे कर्मयोग में प्रवृत्त किया जाए। अपने कुटुंब को सेना में देखने के पश्चात् अर्जुन के मन
में कैसे विचार उठे, यह संजय आगे के श्लोकों में बताते हैं।
मित्रों को रण में शत्रु पाया,
परिजन देख अर्जुन घबराया। - 26
कायरता युक्त हुए कुंतीनंदन,
करुणाभाव सुन रहे देवकीनंदन। - 27
परिजन,बंधु देख शरीर काँपे,
अपनों को अर्जुन कैसे त्यागे।
मन, बुद्धि, अंग तड़प उठे,
मुख सुखा, रोंगटे हुए खड़े। - 28-29
मन मोह, माया में भटका,
गाण्डीव जा रहा छूटा। - 30
अपने कुटुंब को रणभूमि में देखकर अर्जुन उदास हो गए। उनका शरीर काँपने लगा, त्वचा
जलने लगी, रोंगटे खड़े हो गए, मुख सूखने लगा, उन्हें खड़ा होना मुश्किल हो गया और
गाण्डीव धनुष हाथ से छूटने लगा।अर्जुन अनेक युद्ध लड़ चुका था। इस युद्ध में उसके निराश
और दुःखी होने का कारण उसका मोह था। अर्जुन जैसे विषाद के क्षण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन
में अनेक बार आते हैं। स्वजनों की मृत्यु, अपनों से धोखा खाना व्यक्ति की चित्त-चेतना को
हिलाकर रख देता है। ऐसी परिस्थिति में कुछ व्यक्ति अवसाद का शिकार हो जाते हैं, परंतु
विवेकवान इन्हीं क्षणों में अपनी समूची शक्ति को किसी एक लक्ष्य पर केंद्रित करके महानता
की सीढ़ियाँ चढ़ते भी देख गए हैं।
कलिंग विजय के बाद सम्राट अशोक भी अर्जुन की तरह शोक में डूब गए थे। धन और साम्राज्य
विस्तार के लिए लाखों की मृत्यु से उनका हृदय चीत्कार उठा। इन विषाद के क्षणों में उनके जीवन में भारी परिवर्तन आया, उन्होंने अपना सारा जीवन और धन बौद्ध धर्म के विस्तार में
लगा दिया। आनंद भगवान् बुद्ध के सबसे अधिक प्रिय शिष्य और चचेरे भाई थे। भगवान् बुद्ध
के देह-त्याग से वे शोकसागर में डूब गए। उन्होंने कुटी का द्वार बंद कर लिया, तीन दिन और
तीन रात वे लगातार गहन समाधि में रहे। तीन दिन के पश्चात् जैसे ही उठने लगे, उन्हें
संबोधि प्राप्त हो गई। इतिहास में और भी अनेक उदाहरण हैं, जब विषाद के क्षणों में ही व्यक्ति
की चेतना पूरी तरह जाग्रत् हुई। अगले श्लोकों में युद्ध के प्रति अपनी अनिच्छा प्रकट करते हुए
अर्जुन बोले–
शकुन विपरीत दिए दिखाई,
स्वजन युद्ध नहीं हितकारी। - 31
राज्य सुख की नहीं कामना,
भोग सुख की नहीं भावना। - 32
मधुसूदन तुम करो विचार,
युद्ध से न मिले हमको लाभ। - 33
त्रिलोकी राज का त्याग करूँ,
नहीं धरा राज पर ध्यान धरूँ। - 34-35
हिंसा देती नहीं प्रसन्नता,
मारण उचित नहीं समझता।
कुल हत्या से पाप लगेगा,
मन में शोक, संताप रहेगा। - 36-37
ज्ञान नहीं है दुर्योधन को,
नहीं देखता पाप, दोष को।
जनार्दन हम ज्ञानी-ध्यानी,
क्यों कहलाएँ हम अज्ञानी। - 38-39
धर्म सनातनी नहीं बचेगा,
कुल नारी में दोष बढ़ेगा। - 40-41
वर्णसंकर हो जाते पापी,
कष्ट उठाती मानव - जाति।
पिंड-पानी बिन पितर तरसते,
नरकवास में वे सब गिरते। - 42
संस्कार परंपरा मिटती जाती,
पितर आत्मा कष्ट उठाती,
कुल नीति की हानि होती।
गुरुजन वाणी यही बताती। - 43-44
राज्य लोभ हम पर छाया,
पाप करने को अस्त्र उठाया।
युद्ध परिणाम बड़ा अपकारी,
मृत्यु लगे मुझे हितकारी। - 45-46
विषादयुक्त हुए अर्जुन वीर,
त्याग दिया गाण्डीव और तीर। - 47
अर्जुन निराश और दुःखी होकर योगेश्वर से कहने लगे, मैं राज्य, सुख, भोग, विजय आदि नहीं
चाहता हूँ। यदि मेरे पिता, पितामह, गुरुजन,मामा, श्वसुर, पुत्र, पौत्र मुझ पर वार करेंगे, तो
भी मैं उनसे नहीं लडूँगा। युद्ध से तो हानि-ही-हानि होगी। स्वजनों को मारने से कुल-हत्या का
पाप लगेगा। इससे कुल की प्रथाएँ, परंपराएँ, सदाचार, नीतियाँ नष्ट हो जाएँगी। पितरों का
श्राद्ध-तर्पण न होने से उनको कष्ट पहुँचेगा। राज्य के लिए मैं इतना बड़ा महापाप नहीं करूँगा।
युद्ध से तो मुझे मृत्यु ही अच्छी लगती है। इस प्रकार निराश होकर अर्जुन रथ के मध्य भाग में
जाकर बैठ गए।
श्लोक 31 से 46 तक अर्जुन ज्ञान का राग अलाप रहा है। युद्ध के मैदान में त्याग, वैराग्य,
अहिंसा की बातें करना कोरा पांडित्य है। अर्जुन धर्म की आड़ में मोह के कारण युद्ध से पलायन
कर रहा है। रणभूमि में शास्त्र नहीं, शस्त्र से काम लेना होता है। गुरु गोविंद सिंह महान् योद्धा
और धार्मिक व्यक्ति थे। मुगलों के विरुद्ध लड़ने के लिए उन्होंने अपने अनुयायियों को एक हाथ
में माला और एक हाथ में भाला का मंत्र दिया था।
अर्जुन युद्ध के लिए तैयार होने की बजाय भगवान् के सामने बड़ी-बड़ी बातें बना रहा है।
अर्जुन बचपन से उनके साथ खेला है। दोनों सखा और फुफेरे भाई हैं। खेल-खेल में लड़ाई हो
जाने से अनेक बार रुष्ट हुए हैं। अतः अर्जुन अभी उनको गुरु रूप में स्वीकार नहीं कर पाया
है।अर्जुन की तरह विवेकानंद भी श्री रामकृष्ण परमहंस को प्रारंभ में नहीं पहचान पाए थे। वे
पीछे से उनकी बातों का विरोध भी करते थे और मज़ाक भी उड़ा लेते थे। श्री रामकृष्ण
परमहंस ने जब उनको विराट् की अनुभूति कराई, तभी वे पूर्ण रूप से समर्पित हुए थे।
ग्यारहवें अध्याय के नौवें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को विराट् रूप दिखाकर सत्य
का बोध कराया। अर्जुन के असमंजस को दूर करने के लिए योगेश्वर दूसरे अध्याय का विषय
आरम्भ करते हैं।