भगवद्गीता
भगवद्गीता
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अध्याय चार

तीसरे अध्याय में अर्जुन कर्मयोग संबंधी सभी प्रमुख बातें सुन चुका है। कर्म की गति बहुत गहन होती है। हमारे जन्म, मृत्यु, भोग आदि का निर्धारण हमारे कर्मों के अनुसार ही होता है। कर्म यज्ञमय होने से पूरा जीवन ही योगयुक्त हो जाता है।अत: योगेश्वर इस अध्याय में कर्मयोग के साथ यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे। योगेश्वर पहले तीन श्लोकों में अर्जुन को कहते हैं कि कर्मयोग कोई नई चीज नहीं है। यह सृष्टि में अनादि काल से चलता आ रहा है।

‌कर्मयोग मैंने सूर्य को सुनाया,
अनादि काल से चलता आया। - 1

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं कोई नवीन ज्ञान या सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं कर रहा हूँ। यह अविनाशी योग सदा से चलता आया है। राजा-महाराजाओं ने परंपरा से इसे एक-दूसरे से पाया था। मैंने यह योग सबसे पहले सूर्य को सुनाया था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने राजन् इक्ष्वाकु को यह योग दिया था। श्लोक के भाव के अनुसार सूर्य का अर्थ प्रतापी राजाओं से है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी गीता भाष्य में इस श्लोक के सन्दर्भ में सूर्य का अर्थ जगत् प्रतिपालक क्षत्रिय ही कहा है। इक्ष्वाकु सूर्य वंश के प्रथम राजा माने जाते हैं। इसी वंश में प्रतापी राजा रघु, अज, दशरथ और राम का जन्म हुआ था। उन दिनों राजतंत्र पर धर्मतंत्र का नियंत्रण था। भगवद्गीता प्रशासन की पथ-प्रदर्शिका अर्थात् संविधान पुस्तिका के रूप में मान्य थी।आज भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। अतः भगवद्गीता को प्राचीन संवैधानिक मान्यता देना संभव नहीं है।


माघ मास की एकादशी को प्रतिवर्ष गीता जयंती धूमधाम से मनाई जाती है। 25 नवंबर, 2017 को भारत के माननीय राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी ने अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव के अवसर पर कहा-"गीता व्यक्ति के द्वंद्व का समाधान करती है कि क्या सही है और क्या गलत है। मेरा मानना है कि जो भी गीता के संदेश का पालन करेगा, वह 'द्वंद्व' से मुक्त रहेगा, शांत रहेगा तथा जीवन में सफल होगा। भगवद्गीता असुरक्षा, तनाव और भ्रम के भँवर में फँसे युवाओं को उससे बाहर लाने के लिए एक आध्यात्मिक रास्ता उपलब्ध कराती है। सभी लोगों को अपने घरों के साथ-साथ अपने मन में भी हर दिन गीता महोत्सव मनाना चाहिए।" इसी क्रम को जारी रखते हुए योगेश्वर कहते हैं–

राजाओं का जीवन था योगयुक्त,
काल प्रभाव से हुआ योग लुप्त। - 2
आज सुनाया ज्ञानयोग पुरातन,
तू है मेरा शिष्य प्रियतम। - 3

हे अर्जुन! सभी राजा-महाराजाओं का जीवन आदर्श और योगमय होता था। धीरे-धीरे समय के प्रभाव से यह योग धूमिल पड़ गया। रघुकुल के सभी राजा प्रतापी और धर्माचारी थे। भरतवंशी राजाओं का जीवन भी नीतियुक्त था। राजा प्रसेनजित, बिम्बिसार और अजातशत्रु भी भगवान् बुद्ध के अनुयायी थे। धीरे-धीरे यह परंपरा लुप्त हो गई। गीता का थोड़ा अंश भी यदि भारत की जनशक्ति ने फिर से अपना लिया, तो भारत उठकर खड़ा हो जाएगा और संसार में सूर्य की तरह चमकता नजर आएगा।


अर्जुन! तू मेरा प्रिय शिष्य है। आज तुझे वही प्राचीन योग सुना रहा हूँ। ज्ञान सदा पुराना ही होता है। बदलते समय के अनुसार उसे अभिव्यक्त करने के तरीके, भाषा-शैली आदि बदल जाते हैं। मानस के उत्तरकांड में काकभुशुण्डि जी कहते हैं-"कहेऊँ परम पुनीत इतिहासा।" (मैंने यह परम पुनीत इतिहास कहा।) सत्य हर देश, काल में एक जैसा ही रहता है, उसमें परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं होता है। असत्य आधारहीन होता है, इसलिए वह आता-जाता रहता है। अर्जुन भगवान् का प्रिय शिष्य है। शिष्यत्व की कसौटी समर्पण है। बुद्ध-आनंद, चाणक्य- चंद्रगुप्त, श्री रामकृष्ण परमहंस-विवेकानंद, महर्षि विरजानंद और स्वामी दयानंद की जोड़ी समर्पण का परिणाम थी। भगवान् द्वारा पूर्व जन्मों में दिए गए उपदेश की बातें सुनकर अर्जुन के मन में जिज्ञासा उठी और वह पूछने लगा–

सूर्य भगवन् आपसे ज्येष्ठ,
कैसे संभव यह उपदेश? - 4
अर्जुन मेरे तेरे जन्म अनेक,
मुझे स्मरण है जन्म प्रत्येक। - 5

अर्जुन का योगेश्वर से प्रश्न है कि आपका जन्म तो अभी का है, सूर्यवंशी राजाओं की तो अनेक पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं। अर्जुन कृष्ण का संवाद संपूर्ण मानव-जाति के कल्याण के लिए है। अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के योग-बल और शक्तियों से भली-भाँति परिचित थे। उन्होंने जानबूझकर ऐसे प्रश्न पूछे हैं, जिनसे युगों-युगों तक जनसामान्य की योग संबंधी समस्याओं का समाधान होता रहे। भगवान् अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। मैं उन सभी को जानता हूँ, परंतु योग में पूरी तरह प्रवृत्त न होने के कारण तुझे वे याद नहीं हैं। भगवान् बुद्ध को अपनी हजारों जन्मों की बातें याद थीं। महावीर जैन, आदि गुरु शंकराचार्य, गुरु नानक देव, श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे महात्माओं ने पुनर्जन्म की मान्यता को स्वीकार किया है। महर्षि पतंजलि ने भी योग-दर्शन (3.18) में पुनर्जन्म की पुष्टि करते हुए कहा है–

संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।।

“संस्कार का साक्षात्कार कर लेने से पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है।” पुनर्जन्म का सिद्धांत वैज्ञानिकों के लिए भी चुनौती बना हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने शरीर को प्रयोगशाला और मन को यंत्र बनाकर जीवन-मृत्यु के रहस्यों को पूर्ण रूप से जान लिया था। यहाँ प्रश्न पैदा होता है कि क्या हम भी अपने पूर्वजन्मों को जान सकते हैं? योग का राजमार्ग बिना किसी भेदभाव के सबके लिए खुला हुआ है। संसार की भागदौड़ में हम जितना समय लगाते हैं, यदि उससे आधा समय भी योगाभ्यास में लगा दें, तो कुछ ही वर्षों में योग के आशातीत परिणाम अनुभव कर सकते हैं। आगे के चार श्लोकों में योगेश्वर अपने पूर्व जन्मों की विशेषता बताते हैं।

मैं हूँ जन्म रहित अविनाशी,
सबका नियामक घट-घट वासी।
अधीन कर लेता अपनी प्रकृति,
योगमाया से प्रकट करता शक्ति। - 6

योगेश्वर ने इस श्लोक में अपने को जन्मरहित, अविनाशी, घट-घट वासी और अपनी योगमाया से स्वतंत्र रूप से प्रकट होने वाला कहा है। भारतीय योग मनुष्य को नर से नारायण बनने की कला सिखाता है। भगवान् श्रीकृष्ण योगियों के राजा हैं। कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड पर उनका अधिकार है। उनके ज्ञान से परे कुछ भी नहीं है। चित्त के स्थिर होने पर साधक ब्रह्माण्ड के रहस्यों का ज्ञाता हो जाता है। महर्षि पतंजलि योग-दर्शन (1.40) में कहते हैं–

परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकार:।।

“अभ्यास करते-करते साधक अपने चित्त को सूक्ष्म परमाणुओं से लेकर बड़े-से-बड़े पदार्थ तक जहाँ चाहे, वहाँ तत्काल स्थिर कर सकता है। उसका अपने चित्त पर पूरा अधिकार हो जाता है।” मानव देह सीमित है, परंतु उसमें निहित परम तत्त्व असीमित और अनंत शक्तियों से युक्त है।


मनुष्य का जन्म उसके मन का परिणाम है। हमारे मन की इच्छाओं, कामनाओं और वृत्तियों के अनुसार प्रकृति के शाश्वत नियम हमें जन्म लेने के लिए बाध्य करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण शुद्ध स्वरूप हैं, वे प्रकृति की शक्ति का अपनी इच्छानुसार प्रयोग करके संसार के कल्याण के लिए प्रकट होते हैं।


गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जहाँ भी 'मैं' शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ अत्यंत व्यापक है। अपने व्यक्तिगत ‘मैं’ को समष्टि के साथ समन्वित करना ही योग है। इसी विराट् ‘मैं’ की ओर उन्होंने बार-बार संकेत किया है। प्रकृति के नियमों को धारण करने से ही यह संभव हो सकता है। अनुशासन, निष्पक्षता, सत्य, नित्य-निरंतर यज्ञ, अपरिग्रह, संतोष, तप, सरलता, शांति आदि नियम प्रकृति में निहित हैं। इसी क्रम को जारी रखते हुए योगेश्वर अपने अवतार रूप में प्रकट होने का कारण बताते हैं।

जब-जब होती धर्म की हानि,
बढ़ जाते असुर अभिमानी।
रक्षित करता मैं साधुजन,
नष्ट हो जाते सब दुर्जन। - 7

युग–युग प्रकट होता रहता,
धर्म स्थापना मैं हूँ करता। - 8

योगेश्वर कहते हैं कि अधर्म, अनाचार, दुष्टता, भय, आतंक चिरस्थाई नहीं हो सकते। जब स्थिति मनुष्य के हाथ से बाहर निकल जाती है,तो वे स्वयं देह धारण करके मनुष्यों के बीच में प्रकट होकर संतुलन स्थापित करते हैं। धरती पर अनेक बार महासंकट पैदा हुआ, परंतु शक्ति ने अवतरित होकर उसे निरस्त कर दिया। आज फिर से हमने भौतिक प्रगति के नाम पर विनाश के साधन चारों तरफ जमा कर लिए हैं। दार्शनिक, विद्वान्, मनीषी, योगी, राजर्षि, वैज्ञानिक इस समस्या का समाधान करने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहे हैं। लगता है कि यदि हम सब इसी प्रकार दौड़ते रहे, तो मनुष्य जल्दी ही अपना अस्तित्व गवाँ बैठेगा।


अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या भगवान् अपनी इस प्रतिज्ञा को आज के युग में पूरा करेंगे? प्रकृति अपने आप में पूर्ण है। असंतुलन को संतुलित करने के लिए उसके कोष में पर्याप्त शक्ति मौजूद है। भगवान् राम, कृष्ण, बुद्ध जैसी महान् आत्माएँ देह धारण किए बिना ही संकल्प बल से हमारे मन को नियमित कर धर्म की स्थापना कर सकती हैं। परंतु स्थूल देहधारियों के शिक्षण के लिए दृष्टांत और नमूनों की आवश्यकता अनिवार्य है। किसी घटना या पदार्थ को प्रत्यक्ष देखकर ही हमारी जिज्ञासा का पूर्ण समाधान होता है। भगवान् स्वयं अवतरित होकर अपने चरित्र और कर्मों के द्वारा हमारे मन में धर्म के प्रति दृढ़ विश्वास पैदा करते हैं। भगवान् का असली अवतरण मनुष्यों की चेतना में अवतरित होकर युग के प्रवाह को बदलना है। यह कार्य योगशक्ति के सूक्ष्म महाप्रयोगों के द्वारा होता है। भगवान् बुद्ध ने चेतना के इसी वैज्ञानिक प्रयोग के द्वारा मनुष्यों के मन को नई दिशा देकर एक नये युग का सूत्रपात किया था।


आज का युग विज्ञान का युग है। बुद्धि के खेल ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है। अतः भगवान् का अवतरण भी इसी के अनुरूप होना चाहिए। गायत्री के महान् साधक और गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी ने अगस्त 1979 की 'अखण्ड ज्योति पत्रिका' में लिखा है-"अपने युग में भगवान् की सत्ता प्रज्ञावतार के रूप में प्रकट हो रही है। वह व्यक्ति के रूप में नहीं, शक्ति के रूप में प्रकट होगी। अपने युग में जो महाभारत लड़ा जाएगा वह विशुद्ध चेतना क्षेत्र का होगा। उसमें विचार, मान्यताएँ और आकांक्षाएँ ही उखाड़ी और जमाई जाएँगी। गायत्री महामंत्र में उन सभी तत्त्वों का समावेश है, जो सद्भाव संपन्न आस्थाओं के निर्माण एवं अभिवर्धन का प्रयोजन पूरा कर सकें।"


महर्षि अरविंद घोष ने भी 'योग-समन्वय’ में इसी प्रकार का संदेश दिया है-"हम एक ऐसे युग में निवास कर रहे हैं, जो भावी सृष्टि की प्रसव-वेदना से व्याकुल है।" इस समय धरती पर जो उथल-पुथल मची हुई है, वह अवतार के द्वारा मनुष्यों को नियमित करने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। इस वेदना के बाद सुख का साम्राज्य आना सुनिश्चित है। कलियुग के इस महावतार को जानने-पहचानने में मनुष्य-जाति को बहुत समय लग सकता है। इसके पश्चात् योगेश्वर अपने दिव्य जन्म, कर्म का वर्णन करते हैं।

अर्जुन दिव्य मेरे जन्म, कर्म,
ऋषि–महर्षि जानते यह मर्म।
पुनर्जन्म नहीं लेता श्रद्धावान्,
उसे प्राप्त हो जाते भगवान्। - 9

श्लोक 9 का अर्थ गहन है। योगेश्वर कहते हैं कि मेरे सभी जन्म और कर्म दिव्य हैं, जो इस रहस्य को जान लेता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। यहाँ हमारे लिए दिव्य का अर्थ जान लेना आवश्यक है। दिव्यता का अर्थ अक्सर चमत्कार समझ लिया जाता है। ध्यान, साधना के द्वारा जब हमारा चित्त (प्राण) पूर्ण शुद्ध हो जाता है, तो हमें अनुभव होगा कि यह शरीर ब्रह्मस्वरूप है। योग हमें ब्रह्माण्ड से जोड़ता है। ब्रह्म में जो शक्तियाँ हैं, वे मनुष्य में भी हैं। इस एकरूपता को अनुभव करने से ही हमें समझ आता है कि भगवान् कृष्ण के जन्म और कर्म दिव्य हैं। वे किसी भोगवश नहीं, एक महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए धरती पर अवतरित होते हैं। वे कंस, शिशुपाल, जरासंध का वध करें या गोपियों के साथ रास रचाएँ या महाभारत के युद्ध में अर्जुन का रथ चलाएँ, इन सबके पीछे उनकी दिव्यता झलकती है। संसार के कल्याण के लिए वे यदुवंशियों का भी संहार कर देते हैं। दिव्यता धारण करके ही दिव्य को समझा जा सकता है।


महर्षि अरविंद घोष ने ‘दिव्य जीवन’ में इसके विषय में लिखा है-"दिव्य आत्मा का जन्म सच्चिदानंद की सचेतन लीला में हमेशा स्वतः पूर्ण होगा। वह अपनी सत्ता में शुद्ध, अनंत, स्वयंभू और अपनी संभूति में अमर जीवन की मुक्त लीला होगी। जिस पर जन्म-मरण या शरीर परिवर्तन का आक्रमण न होगा क्योंकि वह अज्ञान के बादलों में न होगा और न ही हमारी भौतिक सत्ता के अंधकार में फँसा होगा।" कर्मों का जीवन पर प्रभाव बताते हुए योगेश्वर अगले श्लोक में कहते हैं–

आसक्ति जब जाती छूट,
ज्ञानी पाता मेरा स्वरूप। - 10
सब करते मेरा अनुसरण,
भक्तों को देता मैं शरण। - 11

श्लोक 10 में योगेश्वर कहते हैं कि पहले भी अनेक लोग ज्ञान और तप के द्वारा मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं। मेरी शरण में आकर मेरे अभिन्न अंग बन गए हैं। वे आसक्ति, भय और क्रोध से पूर्णतः मुक्त हो चुके हैं। अब उनके गिर जाने का भय पूर्णतः समाप्त हो गया है। पूर्णता को प्राप्त किए बिना आसक्ति, क्रोध, भय आदि के हमले का डर बना रहता है। भगवान् एक कुशल मनोवैज्ञानिक की भाँति क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ रहे हैं।


धरती के अंदर जल और बहुमूल्य संपदा भरी पड़ी है, लेकिन उसे पाने के लिए प्रयत्न तो करना ही पड़ता है। इसी प्रकार भगवान् हमारे अंदर हैं, हम सारी शक्तियों के स्वामी हैं, परंतु उसे पाने के लिए प्रकृति की तरह अनुशासन में रहना और उसके नियमों का पालन करना अत्यावश्यक है। स्वामी विवेकानंद ने राजयोग में लिखा है-"साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण मिलेगा। मैं इस विषय में कितनी भी युक्तियों का प्रयोग क्यों न करूँ पर वे तुम्हारे लिए तब तक प्रमाण नहीं होंगी, जब तक तुम स्वयं प्रत्यक्ष न कर लोगे। परंतु इसके अनुभव के लिए कठोर अभ्यास आवश्यक है।” योगेश्वर कहते हैं कि जैसा करोगे, वैसा ही फल पाओगे। पाँच-दस मिनट की पूजा से जरा-सा ही लाभ मिलेगा। कीमत तो हर चीज की चुकानी ही पड़ती है। मीराबाई डंके की चोट पर कहती हैं–

"माई री मैं तो लीनो गोविंद मोल।
कोई कहै महँगो, कोई कहै सोंधो,
लियो री तराजू तोल।। - (मीरा प्रेम दीवानी)

मीराबाई ने कृष्ण को पाने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। परमात्मा सब कुछ हैं, अतः सब कुछ समर्पण करके ही उन्हें पाया जा सकता है। परमात्मा शक्ति स्वरूप हैं और हम सब भिन्न-भिन्न तरीके से शक्ति की ही उपासना, साधना और आराधना करते हैं। जितना हमारा प्रेम व्यापक होता जाएगा, हम उतना ही भगवान् कृष्ण के नजदीक पहुँचते चले जाएँगे। कर्मयोग का महत्त्व जानते हुए भी हम कर्मफल की इच्छा क्यों रखते हैं? इसके विषय में योगेश्वर कहते हैं–

फल के इच्छुक करते देव आराधना,
शीघ्र ही फलती उनकी यह साधना। - 12

कर्मफल चाहने वाले अपनी पूजा, जप-तप के बदले में सांसारिक वस्तुएँ, धन-धान्य, पुत्र आदि की कामना करते हैं। देवी-देवता उनकी कामनाओं की पूर्ति शीघ्रता से कर भी देते हैं। संसार की वस्तुएँ हमें परिश्रम से मिल जाती हैं। यदि जीवन में कुछ अभाव रह भी जाता है, तो हमें संतोष कर लेना चाहिए। प्रकृति नियमों से चल रही है। हमारी पूजा-पत्री के बदले में यदि कुछ मिल भी जाता है, तो देर-सबेर हमें उसकी कीमत चुकानी पड़ती है।


राजा के पास जाकर यदि माँगना ही है, तो संसार की सबसे कीमती चीज माँगनी चाहिए। इसी प्रकार भगवान् से भी ब्रह्माण्ड की सबसे बहुमूल्य चीज भगवान् को ही माँग लेना चाहिए। अन्य सभी वस्तुएँ तो हमारे जीवन के साथ मिट जाएँगी, भगवान् के साथ तो जन्म- जन्मांतर का संबंध रहेगा।


साधना की प्रारंभिक अवस्था में बच्चों की तरह थोड़ा-बहुत पाने का लालच मन में आ सकता है। परंतु जब हमारा ध्यान प्रगाढ़ हो जाएगा, तो हमें ईश्वरीय नियम समझ में आने लग जाएँगे और सांसारिक लाभ की वस्तुएँ माँगने की लालसा भी स्वतः छूट जाएगी।

कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पाछे लागा हरि फिरे, कहत कबीर, कबीर।।

साधना में यदि समर्पण हो, तो कबीर की तरह हमारे सामने भी भगवान् अपना खजाना खोलकर रख देंगे। परिवार के अभाव दूर करने के लिए स्वामी विवेकानंद अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के कहने पर रात के अँधेरे में माँ काली के मंदिर में प्रार्थना के लिए गए। जगदंबा को देखते ही वे संसार को भूल गए और कह उठे-"माँ! मुझे विवेक दो, ज्ञान दो, भक्ति दो।" यदि वे हम लोगों की तरह सांसारिक वस्तुएँ माँग बैठते, तो महर्षि के पद तक नहीं पहुँच पाते। अगले श्लोकों में कर्मयोग का ही वर्णन है।

गुण कर्म विधान बनाया,
चार वर्ण संसार रचाया।
सृष्टि रचना मैं ही करता,
फिर भी अर्जुन मैं हूँ अकर्ता। - 13

योगेश्वर का कहना है कि मैंने गुण-कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि चार वर्णों की रचना की है। सृष्टि का रचयिता होने पर भी मैं उससे अप्रभावित रहता हूँ। समाज में असभ्य, हिंसक वृत्ति के लोग सदा से रहे हैं। भगवान् ने सबके विकास के लिए समाज को चार वर्गों में बाँट दिया, ताकि कोई भी पिछड़ा या असभ्य न रहे। भगवान् की इस सुंदर व्यवस्था को अपने-अपने स्वार्थ में हमने तोड़-मरोड़कर घृणित और त्याज्य बना दिया है। संविधान की दृष्टि में हम सब बराबर हैं, परंतु जाति-प्रथा का विषकारक प्रभाव किसी से छिपा नहीं है। जन्म लेते ही किसी को जाति के आधार पर अछूत या नीच समझ लेना असभ्यता और अमानवीयता की पराकाष्ठा है।


वेद, उपनिषदों और पुराणों में अनेक प्रमाण हैं, जिनके अनुसार जन्म के आधार पर नहीं, गुण और कर्म के अनुसार समाज का वर्गीकरण किया गया था। यजुर्वेद (26.2) में सभी वर्णों को वेद पढ़ने का अधिकार है। बृहदारण्यकोपनिषद् (1.4) से भी इस बात की पुष्टि होती है कि पहले केवल एक वर्ण था, बाद में सुविधानुसार चार वर्ण बने। मनुस्मृति (10.65) के अनुसार गुण और कर्मों के आधार पर शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र बन सकता है।


महाभारत (शांतिपर्व-188.10) में भी वर्णन है कि पहले वर्णों में कोई अंतर नहीं था। ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण सभी ब्राह्मण थे। भगवान् बुद्ध भी धम्मपद में गुणों के आधार पर वर्ण- व्यवस्था का समर्थन करते हुए कहते हैं-"जिसके अंदर ‘मैं’ और ‘मेरे’ का भाव नहीं है, जो निर्भय और अनासक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।" ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में ऋषि दयानंद का कथन है-"मूर्ख का नाम शूद्र और अतिमूर्ख का नाम अतिशूद्र है। मनुष्य-जाति सबकी एक ही है।”


सभी शास्त्रीय प्रमाणों और अनेक महान् आत्माओं के अथक प्रयासों के बावजूद जाति-प्रथा हमारे मन में रची-बसी हुई है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने भगवद्गीता में इस श्लोक का भाष्य करते हुए लिखा है-"चातुर्वर्ण्य व्यवस्था मानवीय विकास के लिए बनाई गई है। जाति व्यवस्था कोई परम वस्तु नहीं है। इतिहास की प्रक्रिया में इसका स्वरूप बदलता रहा है।" सूचना-क्रांति के कारण हम सब इतने नजदीक आ गए हैं, मानो एक छतरी के नीचे खड़े हैं। अतः इस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए किसी एक वर्ग को नहीं, हम सभी को आगे आना होगा। अपने-अपने स्वार्थ, हित और लाभ को त्यागकर राष्ट्र-यज्ञ में आहुति देनी होगी। इसी क्रम को जारी रखते हुए योगेश्वर कहते हैं–

कर्म नहीं करते मुझे लिप्त,
कर्मफल से मैं रहता मुक्त।
जो जान लेता तत्त्व ज्ञान,
मिट जाता उसका अज्ञान। - 14

श्लोक 14 में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि मैं कर्म और कर्मफल से मुक्त रहता हूँ। जो इस तत्त्व को जान लेगा, मेरी तरह वह भी कर्मफल के बंधन से मुक्त रहेगा। कर्मफल प्रकृति का अटल नियम है। कर्म में आसक्ति के कारण हमें कर्मफल भोगना पड़ता है। मन हमारे विचारों को जबरदस्त तरीके से संजोकर रखता है और विशेष अवधि के बाद कर्मफल के रूप में हमें वापस दे देता है। आत्मा हमारे शरीर में शाश्वत रोशनी है। यह पूरे शरीर का केंद्र है। यदि ध्यान के द्वारा मन इस केंद्र तक पहुँच जाए, तो वह भी आत्मा की तरह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाएगा। अतः कर्मबंधन हमारी अज्ञानता का परिणाम है।


महर्षि रमण का कथन है-"कर्मनियम तब तक अमल में रहता है, जब तक मनुष्य स्वयं को आत्मा से, ईश्वर से भिन्न मानता है। वे कहते थे कि अज्ञान दशा में सभी जीवों को पूर्व निर्धारित क्रियाओं एवं अनुभवों की श्रेणी से गुजरना पड़ता है। एक बार मनुष्य आत्मा का अनुभव कर ले, तो कर्मफल भोगने वाला कोई नहीं रहेगा और इस कारण कर्म नियम का पूरा सिद्धांत व्यर्थ बन जाएगा।" इसके पश्चात् योगेश्वर अर्जुन को कर्मयोग के विषय में बताते हैं।

तत्त्व - ज्ञान का महत्त्व सनातन,
इसी अनुसार करो कर्म संपादन। - 15

योगेश्वर कहते हैं कि कर्म के संबंध में जो तत्त्वज्ञान मैं बता रहा हूँ, वह सनातनी है। हमारे पूर्वजों ने भी इसी का अनुसरण किया था। यदि हम संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो ईसा, राम, कृष्ण, बुद्ध, ऋषि, मुनियों, महान् संतों और समाज सुधारकों का एकमात्र हथियार भगवान् कृष्ण द्वारा अन्वेषित कर्मयोग ही रहा है। अतः भगवान् कृष्ण अर्जुन के माध्यम से हम सभी को इसी मार्ग पर चलने के लिए कह रहे हैं।


महर्षि अरविंद घोष ‘योग समन्वय’ में भगवान् कृष्ण के इस कर्मयोग विषयक ज्ञान के महत्त्व को स्वीकार करते हुए लिखते हैं-"आध्यात्मिक कर्मों का सबसे महान् दिव्य सत्य जो आज तक मानव-जाति के लिए प्रकट किया गया है, अथवा कर्मयोग की पूर्णतम पद्धति जो अतीत में मनुष्य को विदित थी, भगवद्गीता में पाई जाती है।" भगवान् कृष्ण द्वारा प्रदत्त यह कर्मयोग का ज्ञान आज भी उतना ही तर्कसंगत है, जितना महाभारत काल में था। भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी नि:स्वार्थी बलिदानियों के नेतृत्व में लड़ा गया था। आज जो अनगिनत समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं, उनका निदान भी तप से उपजे कर्मयोगियों द्वारा ही होगा। आगे के श्लोकों में कर्म का सूक्ष्म रूप वर्णित है।

कर्म,अकर्म का भेद कठिन,
ज्ञानी को भी लगता जटिल।
अब मैं कर्म तत्त्व कहूँगा,
बंधन मुक्त तुझे करूँगा। - 16

कर्म,अकर्म जानना चाहिए,
विकर्म तत्त्व भी पहचानिए।
बड़ी गहन है कर्म गति,
समझ न पाए इसे मति। - 17

कर्म में अकर्म योगी जानते,
अकर्म में कर्म वे पहचानते। - 18

ये तीनों श्लोक कर्म तत्त्व के संबंध में अति महत्त्वपूर्ण हैं। कर्म क्या है? अकर्म क्या है? विकर्म क्या है? इन तीनों का भेद जानकर इन श्लोकों का भावार्थ समझा जा सकता है। सबसे पहले कर्म को समझ लेते हैं, क्योंकि बंधन, मुक्ति, सुख, दुःख की चाबी इसी में निहित है। कर्म से ही संसार और जीवन चल रहा है। हमारे शरीर में खाना, पीना, सोना, चलना, उठना, बैठना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से चलती रहती हैं। इन्हें करने के लिए मन को कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। ये बिना संकल्प के होती रहती हैं। अतः इन्हें कर्म नहीं क्रियाएँ कहा जाता है। ये फलदायी नहीं होती हैं। जब हम किसी कार्य को मनोयोगपूर्वक करते हैं, तो वह कर्म कहा जाता है। जीवन, मृत्यु और समस्त दुःखों का कारण संकल्पपूर्वक किए गए कर्म हैं। कर्म हमारे अहंकार और कामनाओं से लिप्त होता है। अतः इसे ही ऋषियों ने बंधन की जड़ माना है। महर्षि अरविंद रचित ‘योग समन्वय’ में वर्णित है-"कर्मयोग के पथ में कर्म ही सबसे पहले खोलने योग्य ग्रंथि है, हमें इसे वहीं से खोलने का प्रयत्न करना होगा जहाँ कामना और अहम् भाव में यह मुख्य रूप से बंधी हुई है।"


‘गहना कर्मणो गतिः।’—भगवान् कृष्ण कहते हैं कि कर्म की गति बड़ी गहन है। अवचेतन मन में सभी कर्म बीज रूप में जमा होते जाते हैं और जन्म-जन्मांतर तक सुख-दुःख के रूप में फलित होते रहते हैं। कर्म के इस सूक्ष्म खेल को ध्यान की गहराई में जाकर ही समझा जा सकता है। महर्षि पतंजलि साधनपाद के सूत्र 12 में इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं–

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।।

“क्लेश मूलक कर्म-संस्कार का समुदाय वर्तमान और भविष्य दोनों प्रकार के जन्मों में भोगा जानेवाला है।”अकर्म वे कर्म होते हैं, जो ब्रह्म द्वारा ब्रह्म के लिए होते हैं। सरल भाषा में इसे इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्म को भगवान् का मानकर करने से उसका फल सुख-दुःख न होकर ब्रह्म प्राप्ति ही होता है। अकर्म बुद्ध मन, कृष्ण मन में घटित होता है। अकर्म में कर्म क्या होता है? हम सोचते हैं कि भगवान् सो रहे हैं, आराम कर रहे हैं, इस अकर्म-सी लगने वाली अवस्था में भी उनकी चेतना विश्व-स्तर पर अनेक कार्य करती रहती है। महर्षि रमण के मौन को पशु भी समझ लेते थे।


अकर्म की स्थिति तक पहुँचने के लिए अहंकार को जड़ से काटना होगा। अहंकार ही हमारे और भगवान् के बीच में विशालकाय पर्वत है। अहंकार, तृष्णा, कामना की जड़ें पाताल से भी गहरी हैं। हम सोचते हैं कि बहुत तप कर लिया और अहंकार को मिटा दिया, परंतु यह अवसर पाते ही सूखी घास के समान पुनः जिंदा हो उठता है। भगवान् बुद्ध का कथन है-"जैसे जड़ के बिल्कुल नष्ट न होने पर कटा हुआ वृक्ष फिर जग जाता है, वैसे ही तृष्णा के जड़ से खत्म न होने पर दुःख बार-बार उत्पन्न होता रहता है।”


कर्मयोगी होने के लिए हमें कर्तापन के अभिमान का त्याग करना होगा। फिर हम कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को समझ सकते हैं। कर्म के विषय में महर्षि रमण का कहना था-"कर्म के मूल को ढूँढ़कर काट दीजिए। साक्षात्कार होने तक कर्म रहते हैं। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् न कर्म रहेगा, न विश्व।"

विकर्म वे कर्म हैं, जो हमें नहीं करने चाहिएँ। ये घसीट कर हमें नरक में ले जाते हैं। इनसे अपना और समाज का भारी नुकसान होता है। कर्म की गति को न समझ पाने के कारण हम चोरी, व्यभिचार, हत्या, रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी जैसे विकर्मों के कारण अनंत काल तक दु:ख- चक्रों में फँसे रहते हैं। ध्यान के परिपक्व हो जाने पर ही कर्म-चक्र की सच्ची अनुभूति होती है। संसार की नजरों में हम बच सकते हैं। कानून और न्यायालयों की प्रक्रिया से भी चालाकी से बचा जा सकता है, परंतु अपने मन से कोई नहीं बच सकता। मन रूपी प्राकृतिक शक्ति न्याय देने में जरा-सी भी चूक नहीं करती है। अतः विकर्मों से सदा बचें और अपने कर्मों को यज्ञीय भाव से करें। यम के दूत और कोई नहीं, हमारे कर्मों पर लागू होने वाले प्रकृति के अटल नियम हैं। आगे के श्लोकों में योगेश्वर दिव्य पुरुष के लक्षण बताते हैं।

जिन्हें नहीं होता अभिमान,
ऋषिगण कहते उसे बुद्धिमान्। - 19
योगी त्याग देता आसक्ति,
उसको मिल जाती है मुक्ति। - 20

अंत:करण को जिस योगी ने जीता,
पाप रहित उसका जीवन होता। - 21
सुख -दुः ख में जिसकी समबुद्धि,
समान लगती उसे सिद्धि-असिद्धि। - 22

श्लोक 19 से 22 तक योगेश्वर अर्जुन को सिद्ध पुरुष, पूर्ण योगी, दिव्य आत्मा के लक्षण बताते हैं। भगवान् कहते हैं कि दिव्य पुरुष वही है जिसने सभी कर्मों को ज्ञानाग्नि से भस्म कर दिया है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने भी इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है–

जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।

“सभी कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें।” योग अग्नि को प्रकट करने के लिए बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, श्री रामकृष्ण परमहंस और श्री राम शर्मा आचार्य की तरह खूब तपना पड़ता है। अहंकार को जड़ से उखाड़कर 'मैं’, ‘मेरा' का भाव समाप्त करना होता है। नाम और वेश के महात्मा तो आजकल खूब हैं, परंतु सच्चे संतों का मिलना दुर्लभ हो गया है।


श्लोक 20 में योगेश्वर सिद्ध की पहचान बताते हुए कहते हैं कि उसे कर्मफल की कोई इच्छा नहीं होती है। वह सब कर्म केवल भगवान् के लिए करता है। गायत्री के सिद्ध साधक श्री राम शर्मा आचार्य जी अपनी अंतर्वेदना को व्यक्त करते हुए कहते हैं-"हम तो भगवान् (गुरुदेव) के हाथों में धागे की तरह बंधी कठपुतली मात्र हैं। वे जो निर्देश करें, वही करना, यही हमारे लंबे जीवन की एकमात्र रीति-नीति है। कभी दूसरी बात सोची ही नहीं, उनकी इच्छापूर्ति के अतिरिक्त और कुछ चाहा ही नहीं।"


श्लोक 21 में भगवान् का कहना है कि जिसने अपनी इंद्रियों, मन, बुद्धि को जीत लिया है, सभी भोगों को त्याग दिया है, धन का संग्रह नहीं करता है, वही सिद्ध आत्मा है। धर्म की आड़ में धन का संग्रह, व्यापार, व्यवसाय ने ही धार्मिक भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। हमारे पूर्वज ऋषियों ने धन का संग्रह करना तो दूर, विरासत में मिले धन को भी असार समझकर त्याग दिया था। यदि धर्म को जिंदा रखना है, तो साधु-महात्मा कहलाने वाले लोगों को केवल जीवनोपयोगी चीजें ही पास में रखनी चाहिएँ। धन का बीड़ा धनपतियों के पास ही रहने देना चाहिए। भगवान् बुद्ध की तरह कुटीर का जीवन ही सिद्ध महात्माओं को शोभा देता है।


श्लोक 22 में योगेश्वर इसी क्रम को जारी रखते हुए कहते हैं कि संत सदा संतुष्ट रहते हैं। सुख- दुःख, सिद्धि-असिद्धि में वे सहज ही बने रहते हैं। सिद्ध योगी जानते हैं कि सुख भी अनित्य है और दुःख भी अनित्य है। इन अनित्य चीजों के झमेले में मन को क्यों उलझाकर रखा जाए। जो नित्य तत्त्व है, उसी की खोज में मन को पूर्णतः क्यों न लगाया जाए। संत तुकाराम चरित्र में वर्णित है-“अच्छा हुआ भगवन्! दिवाला निकाला। दुर्भिक्ष ने ग्रासा, सो भी अच्छा ही किया। स्त्री मरी, तो भी अच्छा ही हुआ और यह जो दुर्दशा भोग रहा हूँ, सो भी अच्छा ही हुआ। गाय, बैल और द्रव्यादिक सब चला गया, यह भी अच्छा ही हुआ। लोकलाज नहीं रही, सो भी अच्छा हुआ और यह तो बहुत ही अच्छा हुआ भगवन्! जो मैं तेरी शरण में आ गया।" संत दुःख में भी अपना कल्याण समझकर सम और सहज बने रहते हैं।

जिसकी नष्ट हो गई आसक्ति,
कर्म से मिलती उसको मुक्ति। - 23

योगेश्वर कहते हैं कि जिसने अहंकार और आसक्ति को त्याग दिया है, जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो कर्मों को यज्ञ की भावना से करता है, उसे सिद्धावस्था, निर्वाण या परम अवस्था अवश्य मिलेगी। अहंकार और आसक्ति दो ऐसे मूल विकार हैं, जो अध्यात्म-विज्ञान की सबसे बड़ी बाधा हैं। अहंकार और आसक्ति हमारी अज्ञानता से उत्पन्न होते हैं। ज्ञान कैसे मिलेगा? अज्ञान कैसे हटेगा? इसका उत्तर भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व खोज लिया था। ध्यान से शुद्ध हुआ मन ही सत्य को जान सकता है। मन की इस अवस्था में हमें अनुभव होगा कि हम सृष्टि की धारा का अभिन्न अंग हैं। हमारी तरह सभी प्राणी-पदार्थ भी इसी धारा में बह रहे हैं। हम जबरदस्ती जिस पर मालिकाना हक जताकर आसक्ति पाले हुए हैं, वह हमारा न होकर प्रकृति का खजाना है।


मन की निरपेक्ष अवस्था में ही ज्ञान दृढ़ होता है। राग-द्वेष, अहंकार के समूल नाश से मन निरपेक्ष भाव में स्थित होता है। जिस चीज को हमने स्वयं देख लिया, अनुभव कर लिया, फिर उसे जानने के लिए शास्त्रीय प्रमाण, उपदेश आदि की आवश्यकता नहीं रह जाती है। हम स्वयं समझ जाते हैं कि स्वार्थ के लिए किया गया कर्म हमें कोल्हू के बैल की तरह घुमा रहा है और परमार्थ भाव से किया गया कर्म हमारे मन और बुद्धि को परमावस्था की ओर ले जा रहा है। यह मुक्त अवस्था, स्वतंत्रता केवल मानव योनि में प्राप्त करनी संभव है, क्योंकि अन्य योनियों में मन और बुद्धि बद्ध होते हैं। इसके पश्चात् योगेश्वर भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञों के विषय में बताते हैं।

यज्ञ पदार्थ, पात्र होते ब्रह्मरूप,
योगी यज्ञ करते विविध रूप। - 24
ब्रह्म-अग्नि में करते आपा अर्पण,
इंद्रिय संयम से होता नियंत्रण। - 25-26

प्राण साध से होती समाधि,
योगी देते द्रव्य की आहुति।
समभाव में सदा वे रहते,
स्वाध्याय यज्ञ नित्य करते। - 27-28

पूरक, कुम्भक से होता यज्ञ,
नियमित आहार को कहते यज्ञ।
त्याग, तपस्या से होता है यज्ञ,
पाप का नाश करते सभी यज्ञ। - 29-30

श्लोक 24 से 30 तक भगवान् ने यज्ञ को विस्तृत अर्थ देते हुए हमारे जीवन के सभी क्रियाकलापों को यज्ञ से जोड़ दिया है। श्लोक 24 में वे कहते हैं कि यज्ञ में काम आने वाली सभी वस्तुएँ, कर्ता व क्रियाएँ ब्रह्म का अंश हैं। इस भाँति कर्म करने से ही ब्रह्म का अनुभव होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का जनक है। सभी आर्ष-ग्रन्थों में यज्ञों की महिमा का वर्णन है। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में यज्ञों के अनेक विधि-विधान हैं। ‘शतपथ’ में यज्ञ को देवताओं की आत्मा, श्रेष्ठ कर्म और सृष्टि की धुरी कहा गया है। सृष्टि में यज्ञ क्षणभर के लिए भी नहीं रुकता है। गुरुत्वाकर्षण बल से अधिक शक्तिशाली अपने से कम शक्ति वाले को खींचकर गतिमान् बनाता है। सभी ग्रह, नक्षत्र, आकाशगंगाएँ और निहारिकाएँ एक-दूसरे को शक्ति का आदान-प्रदान करते हैं। परस्पर सहयोग के इसी नैसर्गिक यज्ञ से धरती पर जीवन संभव है। क्षुद्र कहे जाने वाले प्राणी और पेड़-पौधे भी दूसरों को देकर यज्ञ का बोध करा रहे हैं। मानव शरीर के सभी अंग भी एक दूसरे का पोषण और रक्षण करते हैं।


श्लोक 25 से 30 तक योगेश्वर ने बारह प्रकार के यज्ञ बताए हैं। कुछ यज्ञ जनसुलभ हैं। प्रतिदिन अच्छी पुस्तकें पढ़कर स्वाध्याययज्ञ नियमित रूप से किया जा सकता है। बहुत कम घरों में आजकल ऋषि-साहित्य मिलता है। नियमित आहार से अनुशासनयज्ञ आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। जर्जर होते मानव स्वास्थ्य की रक्षा का यह प्रमुख साधन है। स्वस्थ कौन है? महर्षि चरक के प्रश्न का जवाब देते हुए वाग्भट्ट कहते हैं- (हितभुक, मितभुक, ऋतभुक) जो हितकारी हो, भूख से कम, मौसम के अनुसार और न्याय-नीति से कमाया गया हो, वही भोजन हमें स्वस्थ रख सकता है। भगवान् बुद्ध का भी कहना था कि हमें आहार की मात्रा की जानकारी होनी चाहिए और हमें आहार में आसक्त नहीं होना चाहिए।


यदि हम इन दो यज्ञों को अच्छी प्रकार कर लेते हैं, तो देवयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, संयमयज्ञ, विषययज्ञ, समाधियज्ञ, द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, प्राणायामयज्ञ भी कर सकते हैं। ऋषि दयानंद ने भी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और सत्यार्थप्रकाश में पाँच महायज्ञों को दैनिक जीवन में आवश्यक बताया है-“ब्रह्मयज्ञ, (शास्त्र पढ़ना-पढ़ाना) देवयज्ञ, (अग्निहोत्र, विद्वानों की सेवा और संगत करना) पितृयज्ञ, (माता-पिता, ज्ञानी और योगियों की सेवा करना) वैश्वदेव (पाकशाला के भोजन का अंश पाकाग्नि में होमना) और पाँचवाँ अतिथि की सेवा करना।”


श्लोक 30 के अंत में योगेश्वर कहते हैं कि उपर्युक्त यज्ञों को करने वाले योगी पापों का नाश कर देते हैं और वे यज्ञ के गूढ़ अर्थ को जानते हैं। यज्ञ एक महाविज्ञान है। प्राचीन काल में इस विद्या के द्वारा अनेक महान् प्रयोजन सिद्ध किए गए थे। भगवान् राम का जन्म श्रृंगी ऋषि के द्वारा किए गए पुत्रेष्टि यज्ञ से हुआ था। विश्व समस्याओं के समाधान के लिए बड़े स्तर पर अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, वाजपेय यज्ञ कराए जाते थे। रावण को भी यज्ञ की शक्ति पर बहुत अधिक विश्वास था, इसलिए वह अपने अनुचरों को यज्ञ को विध्वंस करने का आदेश देता था। उसके पुत्र मेघनाद ने भी वानरों की शक्ति को नष्ट करने के लिए एक यज्ञ शुरू किया था। विभीषण और लक्ष्मण ने सेना के साथ जाकर उसका विध्वंस किया था।


आधुनिक युग में ऋषि दयानंद ने धूमिल होती हुई यज्ञ-विद्या को पुनर्जीवित किया। बीसवीं शताब्दी में युग ऋषि श्री राम शर्मा आचार्य जी ने प्राचीन काल की तरह देश-विदेश में सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ संपन्न किए। अभी भी इन यज्ञों का सिलसिला जारी है। शांतिकुंज हरिद्वार की यज्ञशाला में प्रतिदिन स्त्रियों के द्वारा यज्ञ कराया जाता है। नारी-सशक्तिकरण की दिशा में उनकी यह अभूतपूर्व पहल है।


यज्ञ को वैज्ञानिक रूप देते हुए श्री राम शर्मा आचार्य जी ने ‘यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान’ शीर्षक में लिखा है-"यज्ञ का विज्ञान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वेदमंत्रों की शब्द शक्ति को विशिष्ट कुंडों, समिधाओं, हवियों, चरुओं के साथ उत्पन्न की हुई विशेष सामर्थ्यवान् अग्नि में सम्मिलित कर देने पर रेडियो सक्रिय तरंगों का आविर्भाव होता है। ये शक्ति-तरंगें रडार यंत्र की तरह संसार के किसी भी भाग में भेजी जा सकती हैं। प्रकृति में किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रविष्ट कराई जा सकती हैं। पृथ्वी पर वर्षा, धन-धान्य, दूध, आरोग्य, प्राण, जीवन आदि की अभिवृद्धि कराने के लिए इनका उपयोग किया जा सकता है।"


श्री राम शर्मा आचार्य जी के उपर्युक्त वक्तव्य से सिद्ध होता है कि यज्ञ से मानव मन में और सूक्ष्म जगत् में व्याप्त पाप-दोषों एवं विषाक्तता को दूर किया जा सकता है। अतः भगवान् कृष्ण के इस आदेश को शिरोधार्य करते हुए हमें यज्ञ को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेना चाहिए। इससे आधुनिक युग की समस्याओं जैसे प्रदूषण, तनाव, चिंता, असाध्य रोगों आदि से अवश्य मुक्ति मिलेगी। यज्ञ के परिणाम बताते हुए योगेश्वर कहते हैं–

यज्ञ शेष से मिलती शांति,
परम मुक्ति की होती प्राप्ति।
यज्ञविहीन का दुःखदायक लोक,
कैसे होगा सुखदायक परलोक? - 31

हे कुरुश्रेष्ठ! यज्ञ शेष अमृत है, इसी से परम शांति की प्राप्ति होती है। जिनमें यज्ञीय भाव अर्थात् देने का भाव नहीं है, अपने धन को अपने से ही चिपकाए रहते हैं, उनका लोक और परलोक दुःखदायक होता है। हम प्रकृति के अंतराल में झाँककर देखें, यहाँ कोई गठरी संभालकर नहीं बैठा है। पशु-पक्षी भी प्रकृति से केवल अपने जीवनयापन लायक लेते हैं।


मनुस्मृति (3.118) में वर्णित है-“यज्ञशिष्टाशिनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते।”यज्ञ-शेष ही सज्जनों का अन्न है। हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रकृति की गोद में बैठकर उतना ही लिया, जो जीवनयापन के लिए अत्यंत जरूरी था। यदि आजकल के सभी धार्मिक, साधु और संत कहे जाने वाले लोगों ने भी भगवान् श्रीकृष्ण की इस बात को माना होता, तो वे धर्म की आड़ में धन-संग्रह करने का पापाचार कभी नहीं करते। इस श्लोक में भगवान् कहते हैं कि यज्ञ न करने वाले का लोक- परलोक दुःखदायक होता है। जितना अधिक हम धन, वस्तुओं का संग्रह करेंगे, उनकी रक्षा को लेकर भी चिंता बनी रहेगी। कम हो जाने, खो जाने का डर सताता रहेगा। ईशावास्योपनिषद् (1) का कथन है–

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।

“केवल भगवान् द्वारा छोड़े गए का (यज्ञशेष) ही उपयोग करो। अधिक का लालच मत करो। क्योंकि यह धन किसका है? अर्थात् किसी मनुष्य का नहीं केवल ईश्वर का है।” मनुष्य प्रकृति का सबसे समझदार प्राणी है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह अतिरिक्त धन से अन्य की रक्षा करे।

जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।। - संत कबीर

कबीर साहब ने बहुत ही सुंदर शब्दों में कहा है कि यदि नाव में जल और घर में धन बढ़ने लगे, तो उसे दोनों हाथों से खाली कर दो। भामाशाह ने महाराणा प्रताप की सेना के पुनर्गठन के लिए अपने धन के दरवाजे खोल दिए थे। आज हम सभी उन्हें आदरपूर्वक याद करते हैं। लोक और परलोक में उनकी कीर्ति सदा छाई रहेगी। आगे के दो श्लोकों में यज्ञीय कर्म का संदेश है।

यज्ञीय कर्म ईश्वर की शक्ति,
इसी ज्ञान से मिलती मुक्ति। - 32

श्लोक 32 में यज्ञ के ज्ञान-विज्ञान को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये सभी यज्ञ मेरे मुख से ( वेदों ) निकले हैं। सभी यज्ञ कर्म से ही होते हैं। कर्म को यदि यज्ञीय बना दिया जाए, तो हम मुक्त हो सकते हैं।


अहंकारवश हम समझ बैठते हैं कि कर्मों के कर्ता हम हैं। हमारे कर्म स्वार्थपूर्ण होने के कारण यज्ञीय रूप नहीं लेते हैं। अहंकार हमारे चित्त (प्राण) की सबसे अधिक गहराई में बैठा है। इसे केवल ध्यान की शिला पर बैठकर जाना जा सकता है। अहंकार के हटते ही प्रकृति का दरवाजा खुल जाता है। सब जगह केवल ब्रह्म ही दिखाई पड़ता है। इसी श्लोक में योगेश्वर ने यह भी कहा है कि कर्म के विज्ञान को समझकर तुम मुक्त हो सकते हो। दासता ईश्वर प्रदत्त नहीं है। यह हमारी अज्ञानता का परिणाम है। अतः हम स्वयं ही इससे मुक्त हो सकते हैं। अहंकार अति सूक्ष्म होता है, इस कारण इसमें फेरबदल के लिए बुद्ध, शंकराचार्य की तरह तपना पड़ता है। तप की भट्ठी में अहंकार को भस्मीभूत करके ही हम अपनी दासताओं से मुक्त होकर ब्रह्मस्वरूप हो सकते हैं। मुक्त अवस्था में प्रकृति के पंजे से छूटकर हम ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाते हैं। यह सुख-दुःख से परे निरंतर आनंद की अवस्था है। ज्ञानयज्ञ की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर कहते हैं–

ज्ञानयज्ञ का फल अनंत,
कर्म का होता ज्ञान में अंत। - 33

योगेश्वर कहते हैं कि द्रव्ययज्ञ, देवयज्ञ, दानयज्ञ आदि सभी यज्ञों में ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। सभी कर्म ज्ञान में जाकर समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान चेतनापरक है। चेतना से ही पदार्थ बना है। अतः चेतना की सही-सही जानकारी से ही सत्य प्रकट होता है। ब्रह्माण्ड के अंतिम सूक्ष्म सत्य ब्राह्मी चेतना को अनुभव करके उसके साथ एक हो जाना ही वास्तविक ज्ञान है। यदि वैज्ञानिक यंत्रों से ब्रह्म-तत्त्व को जान भी लिया जाए, तो इससे कुछ भौतिक लाभ हो सकते हैं, परंतु इस प्रकार के ज्ञान से कोई बुद्ध नहीं हो सकता। भगवान् बुद्ध और जगद्गुरु शंकराचार्य महाज्ञानी थे। उन्होंने ज्ञान पाने के लिए मन द्वारा चेतना पर महाप्रयोग किए थे।


धम्मपद (96.282) में वर्णित है-"सम्यक् ज्ञान द्वारा मुक्त हुए अरहंत का मन शांत हो जाता है और वाणी तथा कर्म भी शांत हो जाते हैं। योग के अभ्यास से प्रज्ञा (ज्ञान) उत्पन्न होती है। योग तथा अयोग इन दो प्रकार के मार्गों को जानकर अपने आपको इस प्रकार विनियोजित करें जिससे प्रज्ञा की भरपूर वृद्धि हो।"


विवेक-चूडामणि (47) में शंकराचार्य ने भी इसी प्रकार का भाव व्यक्त करते हुए कहा है-"तू वस्तुतः परमात्मा ही है, परंतु अज्ञान से जुड़ जाने के कारण अनात्म के बंधन में पड़ गया है और इसी से तेरा जन्म-मृत्यु रूपी संसार-चक्र चल रहा है।”


आधुनिक मनुष्य के पास जानकारियाँ बहुत हैं, परंतु वह उनके बोझ से दबकर तनाव का शिकार हो गया है। अब उसे ज्ञान की सख्त जरूरत आन पड़ी है। ये मनुष्य का परम सौभाग्य है कि उसने महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के द्वारा ज्ञान प्राप्ति का मार्ग अपना लिया है। श्लोक 34 से 42 तक ज्ञान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।

सरल भाव से समझ परमात्मा,
उपदेश देंगे तुझे ज्ञानी महात्मा। - 34

भगवान् कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि सेवा, समर्पण भाव से ज्ञानी महात्माओं की शरण में जा। वे तुझे उपदेश देंगे। भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं गुरु रूप में अर्जुन के साथ थे। इस श्लोक में उनका यह संदेश हम सबके लिए है। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा का विशेष महत्त्व रहा है। नचिकेता तीन रात्रि तक बिना भोजन किए यम के आने की प्रतीक्षा करते रहे। ब्रह्मर्षि नारद को ब्रह्मनिष्ठ सनत्कुमार जी ने उपदेश दिया था। उपनिषदों में इसी प्रकार के और भी अनेक कथानक हैं।


आधुनिक युग में ऋषि दयानंद और ऋषि विवेकानंद ने भी गुरु के चरणों में बैठकर ज्ञान पाया था। गुरु शिष्य को अग्नि परीक्षा से गुजारकर तथा प्राणशक्ति के दान द्वारा उनमें देवत्व का उदय करते थे। विश्वामित्र और देवर्षि नारद की भी देवों ने कड़ी परीक्षा ली थी। विवेकानंद जी को भी अनेक संकट के दरिया पार करने पड़े थे। संत कबीर जी ने गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है–

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।।

“गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मार-मार कर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को गुरु निकालते हैं।”श्री विरजानंद जी का स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रति बहुत कठोर व्यवहार रहता था। छोटी-सी गलती के लिए भी वे उन पर छड़ी से प्रहार कर देते थे।


आज धर्म में आडंबर, दिखावा और विलासिता के कारण गुरु-शिष्य परंपरा धूमिल पड़ गई है। अब वशिष्ठ, द्रोणाचार्य, महर्षि विरजानंद, श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरुओं का मिलना असंभव हो गया है। ज्ञान मनुष्य की सबसे बड़ी भूख है। ज्ञान के अभाव में सांसारिक सुखों के बीच भी वह प्यासा-सा बना रहता है। अब प्रश्न पैदा होता है कि हम गुरुओं के बिना ज्ञान कैसे पाएँगे? अध्यात्म विज्ञान भौतिक विज्ञान की तुलना में अधिक कठिन है क्योंकि इसका संबंध मन, बुद्धि और आत्मा जैसी महाशक्ति से जुड़ा हुआ है। अतः इसमें मार्गदर्शन की सदा आवश्यकता रहेगी ही।


महर्षि रमण का कथन है-"गुरु मनुष्य रूप में हो यह जरूरी नहीं है।भक्त के आत्मसमर्पण करने पर ईश्वर गुरु रूप में प्रकट होकर दया करते हैं।" हमारे अंदर यदि नचिकेता और विवेकानंद जैसी ईश्वर को पाने की भूख हो, तो सूक्ष्म देहधारी महान् आत्माएँ हमें तलाशती हुई स्वयमेव गुरु रूप में प्रकट हो जाएँगी। इस सत्य को हम कुछ वर्षों तक कठोर साधना और तप करके स्वयं अनुभव कर सकते हैं।श्री रामकृष्ण परमहंस गुरु ढूँढ़ने कहीं नहीं गए थे। जगदंबा की कृपा से उन्हें उचित समय पर सहायता मिलती रही। धार्मिक-भ्रष्टाचार के बोल-बाले में हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। खुद-ब-खुद योग का अभ्यास शुरू कर दें। हमारी मेहनत, लगन, श्रद्धा, निष्ठा को देखकर ईश्वर के लंबे हाथ गुरु रूप में अवश्य पहुँचेंगे।

ज्ञान से तेरा मोह मिटेगा,
सब जग मुझमें देख सकेगा। - 35
यदि तू मानता स्वयं को पापी,
ज्ञान नौका से दूर कर भ्रांति। - 36
अग्नि ईंधन को कर देती खाक,
ज्ञान से कर तू कर्मों को राख। - 37

ज्ञान की उपयोगिता बताते हुए योगेश्वर कहते हैं कि अर्जुन इससे तेरा मोह मिट जाएगा और संपूर्ण संसार को मुझमें देख सकेगा। बिना ज्ञान के हमें अपने परिवार के लिए जीने में ही लाभ नजर आता है। हमारी सोच का दायरा सीमित होने के कारण स्वार्थ, लोभ, क्रोध, भ्रष्टाचार पनपता है। मछली ज्ञान की लघुता के कारण समुद्र में जन्म लेकर भी उसकी विशालता से अनभिज्ञ रहती है। अज्ञानता के कारण हमारी स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। परंतु हम पशु- पक्षियों की तुलना में अधिक चेतनशील होने के कारण अज्ञान के ढक्कन को उठाकर सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं।


महाबोधि के दिन भगवान् बुद्ध अपने अंदर ही सभी जीवों के जन्म-मरण को अनुभव कर रहे थे। उनकी सूक्ष्म-देह सभी सीमाओं को पार कर ब्रह्माण्ड की तरह अनंत और विशाल हो गई थी। अब उनके लिए कुछ जानना शेष नहीं रह गया था। मन की इस अवस्था को ही ज्ञान, मुक्ति और निर्वाण कहा जाता है।


ज्ञान और मुक्ति हमारे अंदर पहले से ही मौजूद हैं। उन्हें कहीं दूर से खोजकर नहीं लाना है। हम जन्म से ही ईश्वर की तरह शुद्ध, बुद्ध और पवित्र हैं। मैं, मेरा करते-करते अनेक अशुभ कर्मों के कारण प्राण में जो मिलावट हो गई है, बस उसे ही दूर करना है। प्राण को शुद्ध करने के लिए भारतीय योग विज्ञान ने प्राचीनकाल से ही अनेक विधि-विधानों की खोज कर ली थी। यम-नियम और आष्टांगिक मार्ग के पालन से चित्त (प्राण) के सभी मलों को हटाया जा सकता है। योग के अंगों का अनुष्ठान करने से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता है।


आज बहुसंख्यक लोग अनेक मनोरोगों के शिकार हैं, जिसका कारण हमारे द्वारा प्राण में बोए हुए अनावश्यक और विकृत विचार हैं। प्राण अति सूक्ष्म है। वैज्ञानिक यंत्रों से इसे आज तक देख पाना संभव नहीं हो पाया है। हमारे विचार सूक्ष्म तरीके से प्राण में जाकर छिप जाते हैं। शास्त्रों में इसे ही चित्रगुप्त कहा गया है। यह गुप्त प्राण ही दिन-रात काम करके गोपनीय तरीके से हमारे कर्मों की फाइलें तैयार करता रहता है। चिकित्सा-विज्ञान ने भी ध्यान की उपयोगिता को स्वीकार करके इसे चिकित्सा-प्रणाली का अंग बना लिया है।


धीरे-धीरे संसार योग-युग की ओर बढ़ रहा है। श्लोक 36 में योगेश्वर कहते हैं कि अर्जुन यदि तू यह मानता है कि मैं तो पापी हूँ और मैंने बहुत सारे निंदनीय कर्म कर दिए हैं, तो भी ज्ञान के द्वारा सभी भ्रमों को दूर कर सकता है। संसार का चलन कुछ ऐसा है, जिसमें भोग सिर चढ़कर बोलते हैं। यदि कोई योग के पथ पर कदम बढ़ाए, तो लोग अनेक तर्क देकर उसे निरुत्साहित करते हैं। भगवान् इन सब भ्रांतियों को दूर करते हुए कहते हैं कि ज्ञान की नौका में पापी-से- पापी भी किसी भी उम्र में बैठ सकता है। डाकू अंगुलिमाल और आम्रपाली भगवान् बुद्ध के चरणों में समर्पण कर धन्य हो गए थे। ज्ञान के पथ पर कभी भी आरूढ़ हो सकते हैं। श्रृंगी ऋषि के श्राप के कारण राजा परीक्षित की मृत्यु के सात दिन ही शेष रह गए थे। इन सात दिनों का सदुपयोग करते हुए उन्होंने मृत्यु का भय मन से निकालकर शुकदेव मुनि से ज्ञान प्राप्त किया था।


यहाँ एक प्रश्न मन में उठ सकता है कि क्या हमने जो अशुभ और पाप कर्म कर दिए हैं, वे बिना भोगे नष्ट हो सकते हैं? कर्म करने के बाद उसकी प्रक्रिया हमारे अर्धचेतन मन में चलती रहती है। इस प्रक्रिया के अंतिम चरण में मन संचित विचार समूह को सुख-दुःख, रोग, शोक, आधि- व्याधि, दुर्घटना आदि के रूप में बाहर निकाल देता है। अतः किए गए कर्मों के भोगों से भागने का कोई तरीका सृष्टि में नहीं है। हमारे ऋषियों ने योग-विज्ञान के द्वारा कुछ ऐसे तरीके ढूँढ़ निकाले थे, जिनसे कर्म भोगों को कम किया जा सकता है। उनकी समयावधि घटाई जा सकती है। शांत मन में कर्मभोग के निकलने की प्रक्रिया युद्धस्तर पर चलती है। जन्म-जन्मांतर तक भोगे जाने वाले भोग कुछ दिनों, महीनों में शरीर से बाहर निकल जाते हैं और पहाड़ जैसा भोग टीले के समान हो जाता है। श्लोक 37 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार अग्नि ईंधन को राख कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि से कर्म भोगों को भस्मीभूत कर दो। योग की ऊँची कक्षाओं में सभी जन्मों के कर्मबीजों को जलाकर नष्ट कर दिया जाता है, परंतु इसके लिए महर्षि अरविंद घोष और ऋषि दयानंद की तरह घनघोर श्रम करना होता है। योग के संबंध में महर्षि पतंजलि का अनुभव बहुत गहरा है। वे योग-दर्शन के साधनपाद (52) में कहते हैं–

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्।।

“जैसे-जैसे मनुष्य योग का अभ्यास करता है, उसके संचित कर्म-संस्कार दूर होते जाते हैं।” एक कुशल मार्गदर्शक की भाँति भगवान् श्रीकृष्ण ने भोगों को घटाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया बता दी है। अब तक्षशिला और नालंदा जैसे योग विश्वविद्यालय खुल ही जाने चाहिएँ। इसी से लड़खड़ाती हुई मनुजता की रक्षा हो सकती है। आगे के श्लोकों में ज्ञान और अज्ञान का वर्णन है।

ज्ञान समान नहीं पवित्र निधि,
इसका साधन योग विधि। - 38
ज्ञान को प्राप्त करते श्रद्धावान्,
वे पाते सुख, शांति, भगवान्। - 39

अज्ञानी हो जाते पथ भ्रष्ट,
लोक-परलोक हो जाता नष्ट। - 40
जिसने नष्ट कर दिया कर्म संबंध,
कर्म से नहीं जाता वह बंध। - 41

गीता का अध्याय चार ज्ञानयोग पर आधारित है।भगवान् ने बार-बार ज्ञान का महत्त्व बताकर, हमारे मन को पिघलाकर, उसमें ज्ञान का बीज बोने की कोशिश की है। श्लोक 38 में उनका कहना है कि पढ़ने, सुनने व तर्कबाजी से ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। ज्ञान के लिए हमें योग को सिद्ध करना होगा। एक विद्यार्थी की तरह हमें कमर कसकर जुट जाना होगा। योग के अन्वेषक महर्षि पतंजलि नपे-तुले शब्दों में योग को सिद्ध करने के तरीके बताते हैं। साधनपाद के सूत्र 29 में वे यम-नियमों के पालन द्वारा स्थूल तरीके से योग सिद्ध करना सिखाते हैं। धीरे- धीरे सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए विभूतिपाद के सूत्र चार और सात में कहते हैं कि ध्यान, धारणा और समाधि से योग की सिद्धि होगी। हमारे अंग-अंग में योग के प्रति दृढ़ धारणा होनी चाहिए।


श्लोक 39 में योगेश्वर कहते हैं कि संयमशील और श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त करते हैं और ज्ञान से उनको परम शांति मिलती है। किसी विषय पर हमारे व्यवहार, विचार और भावनाओं में एकाग्रता को श्रद्धा कहा जाता है। श्रद्धा पत्थर में भी प्राण भर देती है।

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ। – बालकांड

“श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप पार्वती जी और शंकर जी की मैं वंदना करता हूँ।” तर्क से हम संदेह से घिर जाते हैं। अभ्यास और अनुभव से ही हमारी श्रद्धा का पोषण होता है। उठते- बैठते, सोते-जागते हमारा ध्यान लक्ष्य पर होना चाहिए। अर्जुन की तरह केवल मछली की आँख ही दिखाई देनी चाहिए और आसपास हमें कुछ नहीं दिखना चाहिए। हर क्षण सजग और सावधान रहने से ही योग सिद्ध होगा। योग के सिद्ध होते ही हम परम शांति अनुभव करेंगे। ‘आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग’ में स्वामी विवेकानंद ने लिखा है-“अगर मनुष्य अपने अहम् बोध को अनंत गुणा कर दे, तो वह परमेश्वर बन सकता है और संपूर्ण विश्व पर अपना अधिकार जमा सकता है।"


योगेश्वर कहते हैं कि अज्ञान से मनुष्य भ्रष्ट हो जाता है और उसका इहलोक तथा परलोक भी बिगड़ जाता है। असत्य को सत्य और सत्य को असत्य मानना ही अज्ञान है। अज्ञान से छुटकारे के लिए हमें अपने अंतर्मन को प्रकाशित कर निरपेक्ष अवस्था में पहुँचना होगा। योग-सिद्धि से अपनी शक्तियों को अनंत गुणा करके ही हम अपने व्यक्तिगत ‘मैं’ को समष्टिगत ‘मैं’ में विसर्जित करके अज्ञान के पर्दे को उठा सकते हैं।


भगवान् का कहना है कि जिसने कर्मयोग के द्वारा कर्म संबंध नष्ट कर दिए हैं, फिर कर्म उसके लिए बंधन का कारण नहीं बनते हैं। कर्म का अच्छा-बुरा परिणाम ही हमें जन्म-मृत्यु और अनेक योनियों में भटकने के लिए बाध्य करता है। महर्षि अरविंद घोष योग के आधुनिक वैज्ञानिक थे। ‘योग समन्वय’ में कर्म के विषय में वे कहते हैं-"जब मनुष्य का योग एक निश्चित शिखर पर पहुँच जाता है, तब उसके लिए कोई कर्म शेष नहीं रह जाता। तब वह कर्म उसी प्रकार करता है जिस प्रकार भगवान् कर्म करते हैं। भागवत-शक्ति ही उसके अंदर उसकी प्रकृति द्वारा कर्म करती है। उसका कर्म परा-शक्ति के सहज प्रभाव के द्वारा विकसित होता है।” अंतिम श्लोकों में योगेश्वर अज्ञान मिटाने और युद्ध का आदेश देते हैं।

ज्ञान से अज्ञान हटाओ,
अपने संशय सब मिटाओ।
युद्ध निमित्त अर्जुन उठो,
समता योग में तुम जुटो। - 42

श्लोक 42 में योगेश्वर अपनी ओजस्वी वाणी से अर्जुन को युद्ध और योग के लिए प्रेरित करते हैं। कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि और योग परस्पर विरोधी बातें लग रही हैं। योग किसी एक वर्ग विशेष तक सीमित नहीं है। केवल भगवा वस्त्रधारी संन्यासी को ही योगी नहीं कहा जा सकता। योग मन की एक उच्च अवस्था का नाम है, जिसमें हमारे विचार और कर्म स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ के लिए होते हैं। अतः जिस व्यक्ति के हृदय में समता है, विश्व-बंधुत्व की भावना है, उसका प्रत्येक कर्म योग ही है। महाराणा प्रताप की युद्ध साधना योगियों जैसी थी। परिवार समेत भूखे मरकर और अनेक कष्ट सहकर भी उन्होंने अन्याय का समर्थन नहीं किया।


स्वस्थ, सभ्य और शक्तिशाली समाज के लिए योग अपरिहार्य आवश्यकता है। भगवान् कभी- कभी सोई हुई मनुजता को जगाने और उठाने के लिए आते हैं। जब हम चारों ओर से घिर जाते हैं, कोई रास्ता नहीं सूझता है, तो भगवान् की कोई-न-कोई शक्ति हमारा मार्गदर्शन करने के लिए धरा पर आ जाती है। स्वामी विवेकानंद देश-विदेश में घूम-घूमकर लोगों को जगा रहे थे। उनका कहना था-"जगत् की अनंत शक्ति तुम्हारे भीतर है। जो कुसंस्कार तुम्हारे मन को ढके हुए हैं, उन्हें भगा दो। साहसी बनो। सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो। उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुँचो, तब तक मत रुको। पिंजरे को तोड़ डालने वाले सिंह की भाँति तुम अपने बंधन तोड़कर सदा के लिए मुक्त हो जाओ। तुम्हें किसका भय है, तुम्हें कौन बांधकर रख सकता है? तुम शुद्धस्वरूप हो, नित्यानंदमय हो।"


इस अध्याय में योगेश्वर ने अर्जुन के अंदर जो ज्ञान का बीज बोया है, वह प्रस्फुटित, पल्लवित और पुष्पित होने लगा है। अर्जुन के मन में अनेक प्रश्न उठने लगे हैं। इन्हीं प्रश्नों से पाँचवाँ अध्याय आरंभ होता है।